पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' समाज में छाए हुए अनाचार , असंतोष और दुष्प्रवृतियों का एकमात्र कारण है कि जनसाधारण की आत्मचेतना मूर्च्छित हो गई है l चिंतन और चरित्र यदि निम्न स्तर का है तो उसका प्रतिफल भी दुःखद , संकटग्रस्त एवं विनाशकारी होगा l आचार्य श्री लिखते हैं --- ' संसार में बुराई और भलाई सभी कुछ है , पर हम उन्ही तत्वों को आकर्षित और एकत्रित करते हैं जिस प्रकार की हमारी मनोदशा होती है l यदि हम विवेकशील हैं , हमारी रूचि परिमार्जित है तो संसार में जो कुछ श्रेष्ठ है , हम उसे ही पकड़ने का प्रयत्न करेंगे l किन्तु श्रेष्ठता का अनुकरण कठिन होता है l सुगंध की अपेक्षा दुर्गन्ध का विस्तार अधिक होता है l एक नशेड़ी , जुआरी , दुर्व्यसनी , कुकर्मी अनेकों संगी - साथी बना सकने में सहज सफल हो जाता है l ' आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---- गीता पढ़कर उतने आत्मज्ञानी नहीं बने जितने कि दूषित साहित्य , अश्लील दृश्य , अभिनय से प्रभावित होकर कामुक अनाचार अपनाने में प्रवृत हुए l कुकुरमुत्तों की फसल और मक्खी - मच्छरों का परिवार भी बड़ी तेजी से बढ़ता है पर हाथी की वंश वृद्धि अत्यंत धीमी गति से होती है l भौतिक प्रगति के साथ चेतना का स्तर ऊँचा हो , यही सच्ची प्रगतिशीलता है l
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