एक बार महाराजा पुरंजय ने राजसूय यज्ञ किया l इसमें उन्होंने दूर - दूर से ऋषि - मुनियों को आमंत्रित किया l प्रजा की सुख - संमृद्धि के उद्देश्य से आयोजित यज्ञ में विधि - विधान से आहुतियाँ दी जाने लगीं l यज्ञ की पूर्णाहुति का दिन आया l महाराज , महारानी , राजकुमार सभी यज्ञ मंडप में विराजमान थे l वेदमंत्रों की ध्वनि से वातावरण गुंजित हो रहा था l अचानक एक किसान के रोने की आवाज सुनाई दी l वह रोते हुए कह रहा था --- " दस्युओं ने मेरी सम्पति लूट ली l मेरी गाय छीनकर ले गए l दस्यु अभी कुछ ही दूर गए होंगे l महाराज ! तुरंत उनको पकड़कर मेरी सम्पति दिलाएँ l " पंडितों ने कहा ---- " इस व्यक्ति को दूर ले जाओ l यदि राजा इस पर दया कर के बिना पूर्णाहुति के उठ गए तो देवता कुपित हो जाएंगे l " राजा दयालु था , किसान का रुदन सुनकर उसका हृदय करुणा से भर गया l राजा ने कहा ---- " मेरा पहला कर्तव्य अपनी प्रजा का संकट दूर करना है l मैंने अनेक यज्ञ पूर्ण किए हैं l आज मैं पहली बार यज्ञ पूर्ण किए बिना अपने राज्य के किसान का संकट दूर करने जा रहा हूँ l " राजा के ऐसा कहने पर साक्षात् यज्ञ भगवान प्रकट हुए और बोले --- " राजन ! तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं l यह तुम्हारी परीक्षा थी कि तुम अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य का पालन करते हो या नहीं l अब तुम्हें सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलेगा l "
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