गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन का प्रसंग है ---- बात उस समय की है जब रामचरितमानस की रचना नहीं हुई थी l नवरात्री के दिनों में वे स्वयं वाल्मीकि रामायण का नौ दिन का पाठ कर रहे थे l उन दिनों के लिए उन्होंने यह निश्चय किया था कि भिक्षाटन नहीं करेंगे , अपनी कुटीर से सरयू नदी के तट तक आने जाने में कुछ मिल गया तो खा लेंगे अन्यथा मागेंगे नहीं l परायण का पांचवां दिन था , श्री नरहर्यानन्द जी वहां पधारे , उन्होंने तुलसीदास जी से सब हाल पूछा फिर कहा --- ' जब आप कहीं मांगने नहीं जायेंगे तो भोजन कहाँ से आएगा ? ' तुलसीदास जी बोले --- ' आएगा महाराज l यदि राम की अनुकम्पा हुई तो वे स्वयं लेकर आएंगे l इसी समर्पण योग का अभ्यास इन दिनों चल रहा है l ' श्री नरहर्यानन्द जी ने कहा ---- ' समर्पण की तुम्हारी परिभाषा अत्यंत संकीर्ण है , इससे तो संसार में निष्क्रियता पनपेगी , यह समर्पण योग नहीं है l जो समर्पण योग की दुहाई देकर निकम्मेपन का प्रपंच रचते हैं उनका इस लोक और परलोक कहीं भी कल्याण नहीं होता l समर्पण स्वार्थों का , इच्छाओं का , वासनाओं , तृष्णाओं और अहंताओं का होता है l समर्पण किसी को निष्क्रिय व निष्चेश्ट नहीं बनाता और न ही इसकी शिक्षा देता है l फिर भी जहाँ ऐसी निष्क्रियता दिखाई पड़े तो उसे ढकोसला ही समझना चाहिए l इसलिए तुम समर्पण के उच्च आदर्श को अपनाओं इसी में तुम्हारा और विश्व का कल्याण है l " तुलसीदास जी के आग्रह पर श्री नरहर्यानन्द जी ने उन्हें दीक्षा दी l उसी दिन तुलसीदास जी ने वाल्मीकि रामायण के परायण को अधूरा छोड़ा और समाज के लिए कुछ करने और देने की ललक से काशी चले गए l उनके मन में बड़ी उहापोह थी कि समाज को क्या दें ? एक दिन श्री हनुमान जी उनके सम्मुख प्रकट हुए और कहा ---- " आप अच्छे कवि हैं , फिर किस उधेड़बुन में पड़े हैं ? क्यों नहीं लोकभाषा में वाल्मीकि रामायण का प्रणयन कर डालते हैं l यह अद्भुत ग्रन्थ है , इससे समाज को प्रकाश मोलेगा और तुम्हारा यश दसों दिशाओं में फैलेगा ----------- -
No comments:
Post a Comment