भर्तृहरि ने वैराग्य शतक में लिखा है ----- तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा : l भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता: " अर्थात तृष्णा बूढ़ी नहीं होती , हम ही बूढ़े होते हैं l भोग नहीं भोगे जाते , हम ही भोग लिए जाते हैं l " पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- शरीर ढलने के साथ इन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं लेकिन कामना और वासना समाप्त नहीं होतीं , कल्पनाएं - मनोभाव उसी दिशा में दौड़ लगाते हैं और मनुष्य पतन को प्राप्त होता है l
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