सौराष्ट्र के राजकवि हेमचन्द्र सूरि का सम्मान स्वयं नरेश करते थे और प्रजा भी उन्हें हृदय से प्रेम करती थी l एक बार वे एक गांव में प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने हेतु निकले l गांववासियों को जैसे ही ज्ञात हुआ कि कविराज आ रहे हैं , वे सभी कुछ न कुछ लेकर कविराज के दर्शनों हेतु उमड़ पड़े l इसी क्रम में एक ग्रामीण , जो स्वयं फटेहाल वस्त्रों में था , उसने एक हस्तनिर्मित परिधान राजकवि के चरणों में समर्पित किया l एक नजर उस टाट जैसे मोठे कपड़े पर तो दूसरी तरफ अपने वस्त्र - आभूषण पर नजर डालते हुए राजकवि की आँखें भर आईं l राजकवि मन ही मन सोचने लगे --- " कितनी घोर विषमता है ! कहाँ हम कीमती व बहुमूल्य परिधानों से सुसज्जित हैं और कहाँ यह परिश्रमी किसान तन ढकने के वस्त्रों से वंचित है l सत्य तो यह है कि हमारा अस्तित्व इसकी श्रमशीलता के कारण ही है , किन्तु हम इसे ही सुरक्षित जीवन प्रदान करने में असमर्थ हैं l " ऐसा विचार करते हुए राजकवि ने वह परिधान अपने माथे से लगाया और धारण कर लिया l जब राजकवि दरबार में पहुंचे तो उनके वस्त्रों पर दृष्टि जाते ही महाराज बोले ---- "कविवर ! ऐसे दरिद्र वस्त्र आपको शोभा नहीं देते हैं , आपने ऐसे वस्त्र क्यों पहने हैं ? " कविराज बोले ---- " महाराज ! हमारे राज्य की अधिकांश प्रजा ऐसे ही साधारण वस्त्र पहनती है , तो फिर मुझे यह बहुमूल्य वस्त्र पहनने का अधिकार किसने दिया ? मैंने निश्चय किया है कि अब मैं ऐसे ही वस्त्र पहनूंगा l " कविराज की करुणापूर्ण बातों ने महाराज के अंतर्मन को छू लिया और उन्होंने निश्चय किया कि अब वे किसान , मजदूर , प्रजाजन आदि सबके हितों का ध्यान रखेंगे और उनकी पीड़ा निवारण का हर संभव प्रयत्न करेंगे l
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