पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " उपासना का अर्थ मात्र मन्दिर बना देना नहीं है l वैसा जीवन भी जीना होता है , तभी वह सफल है l " ------ चित्रगुप्त महाराज अपनी पोथी के पृष्ठों को उलट रहे थे , तभी यमदूतों ने दो व्यक्तियों को उनके सम्मुख प्रस्तुत किया और प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा ---- " यह नगर सेठ है l धन की कोई कमी नहीं है इनके पास l खूब कमाया और समाज के हित के लिए धर्मशाला , मंदिर , कुंए और विद्यालय जैसे अनेक निर्माण कार्य कराए l " अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी , यमदूतों ने कहा --- " यह व्यक्ति बहुत गरीब है , दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिए मुश्किल है l एक दिन जब यह भोजन कर रहा था तो एक भूखा कुत्ता इसके पास आया l इसने भोजन न कर सारी रोटियाँ कुत्ते को दे दीं l स्वयं भूखा रहकर दूसरे की क्षुधा शांत की l अब आप बताइये इन दोनों के लिए क्या आज्ञा है ? " चित्रगुप्त महाराज ने गंभीरता से कहा ---- " धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाए l " उनका निर्णय सुनकर धनी व्यक्ति बहुत परेशान हो गया l वह पृथ्वी तो नहीं जहाँ पैसा खर्च कर के कुछ काम बन जाये , चित्रगुप्त महाराज के आगे भला किसकी चलती है ? धनी व्यक्ति ने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा -- 'महाराज ! मैंने तो इतना दान - पुण्य किया फिर मुझे इतनी सजा क्यों ? ' चित्रगुप्त महाराज ने कहा ---- " तुमने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया l उनकी विवशताओं का बुरी तरह दुरूपयोग किया और उस पैसे से ऐश - आराम का जीवन व्यतीत किया l यदि बचे हुए धन का एक अंश लोकेषणा की पूर्ति हेतु व्यय कर भी दिया तो उसके पीछे भावना थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें , मेरे गुण गायें l जबकि इस गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की , उस रोटी को भी भूखे कुत्ते को खिला दिया l यदि यह साधन - संपन्न होता , तो न जाने कितने अभावग्रस्त लोगों की मदद करता l पाप और पुण्य का संबंध मानवीय भावनाओं से है , क्रियाओं से नहीं l मेरे द्वारा दिया गया निर्णय अंतिम है l "
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