श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं ---ज्ञान , कर्म और भक्ति का समन्वय जीवन के समग्र विकास के लिए अनिवार्य है l इन तीनों का समन्वय होने पर ही सुख , शांतिमय जीवन बीत सकेगा l कर्म और भक्ति के अभाव में ज्ञानी व्यक्ति , अहंकारी बन सकते हैं l ज्ञान के अभाव में मनुष्य के कर्म दुष्कर्म हो सकते हैं और ज्ञान व कर्म के अभाव में केवल भक्ति व्यक्ति को अन्धविश्वासी तथा अकर्मण्य बना सकती है l भक्ति भी ज्ञान और कर्म से युक्त होनी चाहिए l एक कथा है ----- मरने के बाद एक व्यक्ति की आत्मा को यमदूत धर्मराज के सामने ले गए , दूतों ने बताया --- " यह एक बड़ा धर्मात्मा है l युवावस्था में अपने माता -पिता और स्त्री , बच्चों को छोड़कर यह जंगल में चला गया और जीवन भर तप करता रहा l " धर्मराज ने कहा --- " कर्तव्यों का त्याग कर कोई व्यक्ति धर्मात्मा नहीं बन सकता l परिवार के लोगों के साथ विश्वासघात कर के इसने अधर्म ही कमाया , ऐसा भजन किस काम का जो कर्तव्यों को भुलाकर किया जाए l इसे पुन: धरती पर भेजो और कर्तव्य पालन के साथ भजन करने का आदेश करो , तभी इसे स्वर्ग में स्थान मिलेगा l " यमदूतों ने दूसरे व्यक्ति की आत्मा उपस्थित की और कहा --- " यह व्यक्ति बड़ा कर्तव्यपरायण है l काम को ही सब कुछ समझता है l इसकी पत्नी बीमार पड़ी और मर गई , पर यह उसकी कुछ भी परवाह न कर के अपने कर्तव्य में ही लगा रहा l " धर्मराज ने कहा --- " ऐसे ह्रदयहीन का स्वर्ग में क्या काम ? भावना पूर्वक किया गया कर्तव्य ही प्रशंसनीय हो सकता है l जिसे अपने नैतिक कर्तव्यों का ज्ञान नहीं , उसकी शारीरिक दौड़ -धूप क्या महत्त्व रखेगी l इसे प्रथ्वी पर भेजो और कहो कि भावना पूर्वक जीवन जिए और दूसरों से प्रेम करना सीखे , तभी उसे स्वर्ग में स्थान मिलेगा l " एक तीसरे व्यक्ति की आत्मा लाई गई l यमदूतों ने कहा --- " यह एक साधारण गृहस्थ है l सदा आस्तिक रहा , प्रेमपूर्वक परिवार को सुविकसित किया , पवित्र जीवन जिया और दूसरों के उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्न करता रहा l " धर्मराज ने कहा --- " स्वर्ग ऐसे ही लोगों के लिए बनाया गया है , इसे आदरपूर्वक ले जाओ और आनंद पूर्वक यहाँ रहने की व्यवस्था कर दो l " स्वर्ग का अधिकारी वही हो सकता है जिसने ज्ञान , कर्म और भक्ति तीनों को जीवन में अपनाया है l
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