यमदूत और देवदूत मृतकों की जीवन गाथा पूछकर उन्हें स्वर्ग और नरक में ले जाते थे l एक साधु के पास वे पहुंचे तो वे बोले ---- " मैं भरी जवानी में संन्यासी हो गया l यहाँ तक कि छोटे -छोटे बच्चे , पत्नी तथा माता के रोने -बिलखने की परवाह नहीं की l ऐसी है मेरी भक्ति l " उस साधु को यमदूतों ने नरक पहुंचा दिया l साधु बड़ा परेशान हुआ , तब धर्मराज ने उसके कर्मों की समीक्षा करते हुए कहा ---- " कर्तव्यों का परित्याग कर के कोई भक्ति नहीं हो सकती l " वस्तुतः कर्तव्य सर्वोपरि है l आचार्य श्री लिखते हैं --- कर्तव्य ही धर्म है l भगवद भक्ति उसी का एक अंग है l
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