एक बार एक अपराधी पकड़ा गया , उसे फाँसी की सजा मिली l फाँसी की कोठरी में जाने से पूर्व , वह राजा को बुरी -बुरी गाली और दुर्वचन कहने लगा l वह विदेशी था , उसकी भाषा को सभा के एक -दो सरदार ही जानते थे l राजा ने विदेशी भाषा जानने वाले एक सरदार से पूछा --- " यह अपराधी क्या कह रहा है ? " उसने उत्तर दिया --- " आपकी प्रशंसा करते हुए , अपनी दीनता बताता हुआ , यह दया की प्रार्थना कर रहा है l " इतने में दूसरा सरदार उठ खड़ा हुआ , उसने कहा --- " नहीं सरकार ! यह झूठ बोलता है l अपराधी ने आपको गाली दी है और दुर्वचन बोले हैं l राजा तो विदेशी भाषा जानता न था और कोई तीसरा आदमी फैसला करने वाला नहीं था l इसलिए सत्य का कैसे पता चले ? राजा ने स्वयं विचार किया और पहले सरदार को ही सत्यवादी कहा तथा अपराधी की सजा कम कर दी l दूसरे सरदार से राजा ने कहा --- " चाहे तुम्हारी बात सत्य अवश्य ही हो , पर उसका परिणाम दूसरों को कष्ट मिलना तथा हमारा क्रोध बढ़ाना है , इसलिए वह सत्य होते हुए भी असत्य जैसी है l और इस पहले सरदार ने चाहे असत्य ही कहा हो , पर उसके फलस्वरूप एक व्यक्ति के जीवन की रक्षा होती है तथा हमारे ह्रदय में दया उपजती है , इसलिए वह सत्य के ही समान है l "
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