आचार्य गुरुकुल में शिष्यों को पढ़ा रहे थे l एक शिष्य ने प्रश्न किया --- " गुरूजी ! धन , कुटुंब और धर्म में कौन सच्चा सहायक होता है ? " आचार्य बोले --- " वत्स ! धन वह है , जिसे मनुष्य जीवन भर प्रिय समझता है , लेकिन उसकी मृत्यु के बाद धन उसके साथ एक कदम की भी यात्रा नहीं करता l कुटुंब यथा संभव सहायता तो करता है , परंतु उसका सहयोग भी शरीर रहते तक ही है l मात्र धर्म ही ऐसा है , जो लोक और परलोक दोनों में मनुष्य का साथ देता है और उसे दुर्गति से बचाता है l यद्यपि मनुष्य जीते जी इसकी उपेक्षा करता है , तब भी यही धर्म मनुष्य को चिरस्थायी सुख -शांति प्रदान करता है l " यहाँ धर्म का अर्थ वह धर्म नहीं जिसके नाम पर लोग लड़ते हैं l स्वार्थी तत्वों ने धर्म को अपनी स्वार्थ पूर्ति का जरिया बना लिया इसलिए धर्म ही विकृत हो गया l यदि हमें धर्म को समझना है तो भगवान राम और रावण के युद्ध को देखें एक ओर आसुरी तत्वों का प्रतीक रावण था और दूसरी ओर मर्यादापुरुषोत्तम राम थे l महाभारत में कोई साम्प्रदायिकता नहीं थी , वह अधर्म के नाश और धर्म व न्याय की स्थापना के लिए युद्ध था l जिसमे सत्य ,न्याय और सन्मार्ग पर चलने वाले और सच्चे धर्म के प्रतीक पांडव थे तो दूसरी ओर छल , कपट , षड्यंत्र , अपनों का ही हक छीनना , अहंकार से ग्रस्त अधर्मी कौरव थे l यदि संसार में शांति चाहिए तो रामायण और महाभारत की शिक्षाओं को लोगों को जानना होगा और गीता के व्यवहारिक ज्ञान से जीवन जीने की कला सीखनी होगी l
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