पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' संकीर्ण स्वार्थ , वासना और अहं से युक्त अनैतिक जीवन भय का प्रमुख कारण है l ' पद -प्रतिष्ठा , धन , वैभव जिनके पास है वे सबसे ज्यादा भयभीत हैं l मनुष्य का मन एक दर्पण है l बहुत कुछ हासिल करने के लिए वह जो तरीके अपनाता है या जाने -अनजाने उससे जो भूलें हो जाती हैं उन्हें वह संसार से चाहे छुपा ले , लेकिन उसकी आत्मा उन गलतियों के लिए उसे सदा कचोटती रहती है l यह भय उसका अपने आप से है कि जैसा उसने किया , कहीं वैसा उसके साथ न हो जाये l प्रकृति का न्याय है l एक और भय है --वह है ---- खोने का भय l पद , प्रतिष्ठा , धन - वैभव आदि को अपने पास बनाये रखने के लिए व्यक्ति न जाने क्या -क्या यत्न करता है l इन सबसे बढ़कर है --मृत्यु का भय l इस भय का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि यह तो निश्चित है , ईश्वर ने सबको गिनकर श्वास दी हैं , इन्हें कम या अधिक नहीं किया जा सकता l एक कथा है ---- एक राजा को सदा यह भय सताता रहता था कि कहीं कोई शत्रु उस पर हमला न कर दे l इसलिए उसने किले के चारों ओर बड़ी -बड़ी दीवारों का निर्माण कराया , जिनके बीच में गहरी खाइयाँ थीं l सुरक्षा का घेरा इतना मजबूत बनाया कि कोई शत्रु उसे मारने के लिए प्रवेश न कर सके l अपनी उपलब्धि पर कुलगुरु की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए उसने उनको महल में आमंत्रित किया l कुलगुरु ने पूरा महल देखा , फिर राजा से बोले ---- " राजन ! यह तो ठीक है कि अब इस महल में कोई शत्रु प्रवेश नहीं कर सकता , परन्तु मृत्यु को आने -जाने के लिए द्वार की आवश्यकता नहीं होती l उसका आना रोकने के लिए तुमने क्या व्यवस्था की है ? निरंतर सत्कर्म करो और सन्मार्ग पर चलो l यही सत्कर्म ढाल बनकर व्यक्ति की रक्षा करते हैं l " अब राजा को अपनी भूल समझ में आई कि बाहर के उपाय तो मात्र मन की सांत्वना के लिए हैं l
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