पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- " अहंकार विवेक का हरण कर लेता है l इसके चलते सही सोच -समझ विकसित नहीं हो पाती l अहंकार के रोग की ख़ास बात यह है कि यदि व्यक्ति सफल होता है तो उसका अहंकार भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और वह एक विशाल चट्टान की भांति जीवन के सत्पथ या आध्यात्मिक पथ को रोक लेता है l इसके विपरीत यदि व्यक्ति असफल हुआ तो उसका अहंकार एक घाव की भांति रिसने व दुःखने लगता है और धीरे -धीरे मन में हीनता की ग्रंथि बन जाती है l सदविवेक - सद्ज्ञान ही इस अहंकार के रोग की औषधि व उपचार है l एक कथा है ------ नदी तट पर खड़े हुए शमी के वृक्ष ने बड़े जोर से अट्टाहास किया और पास ही पानी में खड़े बेंत से कहा --- " क्या छोटी -छोटी लहरों के थपेड़े लगते ही झुक जाता है l मुझे देख किस शान से सिर ऊँचा किए खड़ा हूँ l " इस प्रकार वह वृक्ष जब -तब बेंत का उपहास उड़ाया करता था l बेंत बेचारा इतना ही कह देता था --- " वृक्ष राज मैं तो विनम्रता में विश्वास करता हूँ , अभिमान में नहीं l " शमी वृक्ष उसकी बात सुनकर बड़ी देर तक हँसता रहा l एक दिन नदी में भीषण बाढ़ आई l लोगों ने देखा कि शमी का अभिमानी वृक्ष जड़ से उखड़ कर तूफान में बह गया , किन्तु जो बेंत प्रवाह से लचक कर जमीन में झुक गया था , वह बाढ़ उतर जाने पर फिर सीधा खड़ा हो गया l बेंत में अहंकार नहीं था , वह शमी वृक्ष का अंत देखकर हँसा नहीं , बल्कि ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने उसे ऐंठ से अकड़ा हुआ अभिमानी न बनाकर नतमस्तक विनम्र बनाया l
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