पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----' भक्ति भावना अन्दर तक ही सिमित न रहे , वह परमार्थ हेतु सत्कर्मों के रूप में अभिव्यक्त हो तो ही सार्थक है l वृत्ति कृपण जैसी हो तो कुबेर का खजाना भी व्यर्थ हैं l उदार के लिए तो प्रतिकूल परिस्थिति में भी परमार्थ की आकुलता रहती है l -------- भगवान श्रीकृष्ण एक दिन कर्ण की उदारता की चर्चा कर रहे थे l अर्जुन ने कहा ---- " धर्मराज युधिष्ठिर से बढ़कर वह क्या उदार होगा ? " कृष्ण ने कहा --- " अच्छा परीक्षा करेंगे l " एक दिन वे ब्राह्मण का वेश बनाकर युधिष्ठिर के पास आए और कहा ---" एक आवश्यक यज्ञ के लिए एक मन सूखे चन्दन की आवश्यकता है l ' युधिष्ठिर ने अपने नौकर को चंदन लाने भेजा , लेकिन तेज वर्षा के कारण सब चंदन की लकड़ी गीली हो गई थीं l बड़ी कठिनाई से बहुत थोड़ा सूखा चंदन मिल सका , l युधिष्ठिर ने अधिक न दे पाने के लिए अपनी असमर्थता व्यक्त की l अब वे कर्ण के पास पहुंचे और वही एक मन सूखे चंदन की मांग की l वह जानता था कि वर्षा में सूखा चंदन नहीं मिलेगा इसलिए उसने अपने घर के किवाड़ - चौखट निकालकर फाड़ डाले और ब्राह्मण को सूखा चंदन दे दिया l
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