शिष्य ने गुरु से पूछा --- " शास्त्रों में वर्णित योग प्रणालियों में कौन सी प्रणाली सर्वश्रेष्ठ है ? " गुरु बोले ---- "वत्स ! प्रणालियाँ श्रेष्ठ नहीं होतीं , उनको करने के पीछे की भावना उन्हें उचित स्वरुप प्रदान करती है l शरीर को हिलाने -डुलाने का नाम योग नहीं है , वरन योग का सच्चा अर्थ मनुष्य का भावनात्मक संतुलन है l यदि मनुष्य कर्म संस्कारों का क्षय करते हुए भावनात्मक रूप से संतुलित हो जाता है , तभी वह सच्चा योगी कहलाता है l " आज संसार में कितने ही लोग योग करते हैं , प्राणायाम करते हैं , माला जपते हैं लेकिन फिर भी संसार में कितनी ही घातक बीमारियाँ हैं , सभी सस्ते , महंगे अस्पताल , दवाखाने अस्वस्थ लोगों से भरे हैं l इसके मूल में कारण यही है कि मनुष्य का मन बड़ा चंचल है l योग , प्राणायाम करते समय मन में पवित्र भाव होने चाहिए , लेकिन उसी समय सारे ऊट -पटांग विचार मन में आते है l व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो , अपने भगवान का ध्यान करते समय , माला जपते समय , माला के मनगे तो खिसकते जाते हैं लेकिन मन बड़ी तेजी से कहीं का कहीं भागता है l संसार में आकर्षण इतना है कि मन को नियंत्रित करना बड़ा कठिन है l श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं ---- निष्काम कर्म से मन निर्मल होता है , जन्म -जन्मान्तर के कुसंस्कार कटते हैं l आचार्य श्री कहते हैं --- अपने विचारों का परिष्कार करो , योग , प्राणायाम के साथ मानसिक पवित्रता भी जरुरी है l जो ऐसा कर पाते हैं वे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ भी होते जाते हैं l
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