पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " बात परिवार की हो , समाज की हो , देश या विश्व की हो सब तरफ झगड़े फैल रहे हैं , सारा विष घुल रहा है जीवन में l इसके पीछे केवल एक कारण है कि भीषण रूप से छीना -झपटी मची हुई है , आधिपत्य करने की होड़ है l " त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपना अधिकार त्यागने के लिए तत्पर थे और भरत अपना सुख त्यागने के लिए तत्पर थे तो कहीं कोई झगड़ा ही नहीं था l झगड़ा तो तब खड़ा होता है जब कोई दुर्योधन कहता है कि मैं पांडवों को पांच गाँव तो क्या सुई की नोक बराबर भी भूमि नहीं दूंगा l कलियुग में वर्तमान में स्थिति और भी भयावह है , अब कुछ देने की तो बात ही नहीं है , अब तो केवल छीनना है l जिसके पास थोड़ी भी ताकत है वह दूसरों का हक छीनता है l अब लोग किसी को सुख -शांति से जीवन जीते नहीं देख सकते l यदि किसी ने अपनी मेहनत से अपने को स्थापित किया है तो आसुरी मानसिकता के लोग उसे मिटाने की जी तोड़ कोशिश करते हैं l नकारात्मक शक्तियां इतनी प्रबल हैं लेकिन विधाता के लेख पर उनका वश नहीं है l विज्ञानं और नकारात्मक शक्तियों का सहारा लेकर अब तो आसुरी प्रवृत्ति के लोग विधाता से भी दो -दो हाथ करने को तैयार हैं l ये असुर ऐसे क्यों होते हैं ? ऋषियों का कहना है --- वे आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं l वे अपने अन्दर खालीपन महसूस करते हैं , जिसको वे बाहर पूरा करना चाहते हैं l -------- कहते हैं एक बार तैमूरलंग ने एक राज्य पर आक्रमण किया l तैमूरलंग लंगड़ा था इसलिए उसे तैमूरलंग कहा जाता था l जिस राज्य पर उसने हमला किया वहां का सुल्तान काना था l हमले के बाद सुलह हुई , समझौता हुआ और उसके बाद दोनों मिल बैठकर बातें कर रहे थे l इस अवसर अनेक लोगों को बुलाया गया था , उनमे कुछ फकीर , संत महात्मा भी थे l उस समय तैमूर परिहास की मनोदशा में था , हँसता हुआ सुल्तान से बोला कि मैं लंगड़ा और तुम काने , ये खुदा को भी क्या हो गया है ? लंगड़े -कानों को सुल्तान बनाता रहता है l इतने लोगों का कत्लेआम हुआ , विधवाओं और अनाथ बच्चों और घायलों की चीखें अभी तक वातावरण में थीं , उस पर तैमूर का परिहास ! सभा में उपस्थित एक फकीर ने कहा ---- "हुजूर ! दरअसल लंगड़े -कानों को ही सल्तनत की जरुरत होती है l वे आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं l वे अपने अन्दर कुछ कमी महसूस करते हैं , जिसको वे बाहर पूरा करना चाहते हैं l जो अपने में जितना ज्यादा संतुष्ट -संतृप्त होता है वो बाहर की उपलब्धियों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता है l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- सेवा -परोपकार के कार्यों और निष्काम कर्म से जीवन का खालीपन दूर होता है , यह आत्मा की खुराक है इसी से आत्मा को तृप्ति और मन को शांति मिलती है l
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