कहते हैं संस्कार बहुत प्रबल होते हैं , संस्कारों का परिवर्तन बहुत कठिन है l माता -पिता के और उनसे पूर्व की पीढ़ियों के गुण -दोष ही संस्कारों के रूप में संतानों में आते हैं l यहाँ तक कि निकटतम रिश्तों के गुण -अवगुण भी खानदान की आने वाली पीढ़ियों में संस्कार रूप में आते हैं l कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सारी जिन्दगी एक मुखौटा पहने रहते हैं , उनके भीतर की असलियत कोई जान ही नहीं पाता , उनका पूरा जीवन इसी मुखौटे में गुजर जाता है लेकिन उनके भीतर , मन से भी अधिक गहराई में जो अवगुण , जो बुराई उनमें होती है , वह उनकी संतान के माध्यम से प्रकट होती है , बच्चे अपने माता -पिता का ही प्रतिरूप होते हैं l अर्जुन के अभिमन्यु जैसा पुत्र तो संभव है लेकिन हिरन्यकश्यप के प्रह्लाद जैसा श्रेष्ठ पुत्र रत्न हो , यह अपवाद है l प्रह्लाद की माता कयाधू ईश्वर भक्त थी और गर्भावस्था की सम्पूर्ण अवधि में वे ईश्वर के परम भक्त नारद जी के संरक्षण में रही थीं l दुनिया -दिखावे के लिए तो सभी चाहते हैं कि समाज मर्यादित हो , नैतिक मूल्य हों , सबका यथा -योग्य सम्मान हो , लेकिन स्वयं को सुधारना कोई नहीं चाहता l यदि समाज में नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है और एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना है तो युवाओं के जीवन को तो सही दिशा में चलना ही चाहिए क्योंकि देश का भविष्य उन्ही के हाथों में है लेकिन उन्हें दिशा देने वाले प्रौढ़ , बुजुर्ग और जीवन के आखिरी मोड़ पर बैठे व्यक्तियों को भी अपने बीते हुए जीवन का एक बार अवलोकन अवश्य करना चाहिए कि अपनी संतानों के लिए वे धन -वैभव के अतिरिक्त नैतिक और मानवीय मूल्यों की , उनके जीवन को सही राह देने वाली कौन सी विरासत छोड़कर जा रहे हैं l अश्लील फ़िल्में , निम्न स्तर का साहित्य और धन की चकाचौंध ने विचारों को प्रदूषित कर दिया है l आचार्य श्री कहते हैं ---- 'चिन्तन क्षेत्र बंजर हो जाने के कारण कार्य भी नागफनी और बबूल जैसे हो रहे हैं l
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