हमारे महाकाव्य हमें बहुत कुछ सिखाते हैं l रामायण का एक पात्र है ---- विभीषण l राक्षस कुल में जन्म लेकर भी उसे सही -गलत की पहचान थी l जहाँ रावण के आतंक से सब भयभीत थे , वहीँ विभीषण निडर था क्योंकि वह नीति और न्याय को समझता था l विभीषण ने रावण की अनीति के विरुद्ध आवाज उठाई, यह जानते हुए भी कि इससे उसका जीवन संकट में पड़ सकता है l भरी सभा में उसने कहा ----- तव उर कुमति बसी विपरीता l हित अनहित मानहु रिपु प्रीता l हे अग्रज ! आपके अन्दर कुमति का निवास हो जाने से आपका मन उल्टा चल रहा है , उससे आप भलाई को बुराई और मित्र को शत्रु समझ रहे हैं l झूठी चापलूसी करने वाले सभासदों के बीच अपने भाई विभीषण की नेक सलाह भी रावण को उलटी लग रही थीं l क्रोध में रावण कह उठा --- ' तू मेरे राज्य में रहते हुए भी शत्रु से प्रेम करता है l अत: उन्ही के पास चला जा और उन्ही को नीति की शिक्षा दे l " ऐसा कहकर उसने विभीषण को लात मारी और सभा से उसको निकाल दिया l समझाने पर भी जो खोटा मार्ग न छोड़े , उससे संबंध ही त्याग देना चाहिए l यही सोचकर विभीषण लंका छोड़कर भगवान राम की शरण में चला गया l रावण अनीति पर था , अत्याचारी था इसलिए एक लाख पूत और सवा लाख नाती समेत उसका अंत हो गया l विभीषण ने रावण जैसे अत्याचारी के साथ रिश्ते निभाने के बजाय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की शरण में रहना उचित समझा l संसार में आज इतना अत्याचार और अन्याय इसीलिए है क्योंकि लोग अपने स्वार्थ के लिए अत्याचारी , अन्यायी को त्यागने के बजाय उसकी छत्रछाया में रहना पसंद करते हैं l यही कारण है की असुरता फलती -फूलती है l
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