एक अंग्रेज के ह्रदय में भारतीयों के प्रति निश्छल प्रेम अनोखी बात लगती है, वह भी उस समय जब भारतवर्ष उनके अधिकार में था, पर उन आत्माओं के लिए यह अनोखी बात नहीं जो सत्य, ईमानदारी, न्याय और मानवोचित सज्जनता के लिए हर इनसान को अपना ह्रदय मानते हैं । अपनी कम और दूसरों की सेवा का अधिक ध्यान रखते हैं ।
ऐसे ही थे वे अंग्रेज पादरी-- सैमुअल इवान्स स्टोक्स जिन्हें 1904 में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए भारत भेजा गया लेकिन यहाँ आकर भारतीय संस्कृति और निश्छलता ने उनके आंतरिक मानव को जाग्रत किया । वह महान पादरी सच्चे अर्थों में भारतीय सन्यासी बन गया-- नाम से सत्यानन्द और गुणों से सच्चे जन-सेवक ।
जिस कमरे में बैठकर वे समाज-सेवा की साधना किया करते थे उसमे बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रखा था----- " आलसी मत बनो, जब परमेश्वर की उपासना से समय मिले तो कुछ पढ़ा-लिखा करो अथवा दूसरों की सेवा के काम किया करो, आलसी होकर अपना समय व्यर्थ वार्तालाप में नष्ट न करो । "
इवान्स स्टोक्स की नियुक्ति शिमला जिले के कोटगढ़ स्थान में हुई थी । कोटगढ़ के प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच न जाने कौन सा शाप था कि वहां के सैकड़ों लोग कुष्ठरोग से पीड़ित थे, सैकड़ों निरीह जन पर्वत की चोटी से आत्महत्या कर चुके थे । इस दुःखद स्थिति कों देख इवान्स स्टोक्स के ह्रदय में बहुत पीड़ा हुई, गंभीरतापूर्वक स्थिति का अध्ययन करने पर उन्होंने अनुभव किया कि बीमारी का मुख्य कारण स्थानीय लोगों की निर्धनता है ।
काफी सोच-विचार के बाद उन्हें एक युक्ति सूझी---- उन्होंने अपने यहाँ की मिटटी की जाँच करवाई और इसके बाद अमेरिका से सेव के अच्छे पौधे मंगवाये । सेव की अच्छी फसल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक लोगों से पत्र-व्यवहार किया । इसका परिणाम हुआ कि कोटगढ़ में सेवों की अच्छी फसल तैयार होने लगी और कुछ ही समय में यह स्थान ' सेवों की घाटी ' के नाम से न केवल भारत में वरन सुदूर विश्व में विख्यात हुआ ।
कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में, अकाल और तत्कालीन कांगड़ा-भूकंप पीड़ितों की सेवा में रात-दिन एक कर सच्ची सेवापरायणता का उदाहरण प्रस्तुत किया । कोटगढ़ में उन्होंने बच्चों के लिए स्कूल स्थापित किया । ' परम ज्योति मंदिर ' की प्रतिष्ठा की, मंदिर के कलश पर सोना चढ़ाया किन्तु उनमे परंपराओं के प्रति अन्ध-श्रद्धा नहीं थी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि कुल्लू और कांगड़ा में जब सूखा पड़ा तो उन्होंने यह सोना निकलवा कर बेच डाला और उसे गरीबों में बाँट दिया ।
उन्होंने मानवीय मूल्यों को ईश्वरीय आदेश मानकर उन्ही का पालन किया ।
ऐसे ही थे वे अंग्रेज पादरी-- सैमुअल इवान्स स्टोक्स जिन्हें 1904 में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए भारत भेजा गया लेकिन यहाँ आकर भारतीय संस्कृति और निश्छलता ने उनके आंतरिक मानव को जाग्रत किया । वह महान पादरी सच्चे अर्थों में भारतीय सन्यासी बन गया-- नाम से सत्यानन्द और गुणों से सच्चे जन-सेवक ।
जिस कमरे में बैठकर वे समाज-सेवा की साधना किया करते थे उसमे बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रखा था----- " आलसी मत बनो, जब परमेश्वर की उपासना से समय मिले तो कुछ पढ़ा-लिखा करो अथवा दूसरों की सेवा के काम किया करो, आलसी होकर अपना समय व्यर्थ वार्तालाप में नष्ट न करो । "
इवान्स स्टोक्स की नियुक्ति शिमला जिले के कोटगढ़ स्थान में हुई थी । कोटगढ़ के प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच न जाने कौन सा शाप था कि वहां के सैकड़ों लोग कुष्ठरोग से पीड़ित थे, सैकड़ों निरीह जन पर्वत की चोटी से आत्महत्या कर चुके थे । इस दुःखद स्थिति कों देख इवान्स स्टोक्स के ह्रदय में बहुत पीड़ा हुई, गंभीरतापूर्वक स्थिति का अध्ययन करने पर उन्होंने अनुभव किया कि बीमारी का मुख्य कारण स्थानीय लोगों की निर्धनता है ।
काफी सोच-विचार के बाद उन्हें एक युक्ति सूझी---- उन्होंने अपने यहाँ की मिटटी की जाँच करवाई और इसके बाद अमेरिका से सेव के अच्छे पौधे मंगवाये । सेव की अच्छी फसल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक लोगों से पत्र-व्यवहार किया । इसका परिणाम हुआ कि कोटगढ़ में सेवों की अच्छी फसल तैयार होने लगी और कुछ ही समय में यह स्थान ' सेवों की घाटी ' के नाम से न केवल भारत में वरन सुदूर विश्व में विख्यात हुआ ।
कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में, अकाल और तत्कालीन कांगड़ा-भूकंप पीड़ितों की सेवा में रात-दिन एक कर सच्ची सेवापरायणता का उदाहरण प्रस्तुत किया । कोटगढ़ में उन्होंने बच्चों के लिए स्कूल स्थापित किया । ' परम ज्योति मंदिर ' की प्रतिष्ठा की, मंदिर के कलश पर सोना चढ़ाया किन्तु उनमे परंपराओं के प्रति अन्ध-श्रद्धा नहीं थी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि कुल्लू और कांगड़ा में जब सूखा पड़ा तो उन्होंने यह सोना निकलवा कर बेच डाला और उसे गरीबों में बाँट दिया ।
उन्होंने मानवीय मूल्यों को ईश्वरीय आदेश मानकर उन्ही का पालन किया ।
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