भावनाएं यदि निम्न कोटि की हों तो यह आदमी को दुःखी , दरिद्र , पतित और पापी बना देती हैं लेकिन यदि भावनाएं उच्च स्तरीय हों तो वह मनुष्य के भविष्य का निर्माण करती हैं , मनुष्य को शांति और शक्ति के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं , आदमी को संत , महापुरुष , ऋषि और देव मानव बना देती हैं l
एक पुरानी कथा है ---------- एक शहर में एक ही दिन दो मौतें हो गईं l एक संन्यासी थे और एक नर्तकी l शहर में दोनों का निवास आमने - सामने था l संयोग की बात दोनों एक ही घड़ी में संसार छोड़कर चल दिए l जैसे ही उनकी मृत्यू हुई उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आये l वे दूत नर्तकी को स्वर्ग की ओर और संन्यासी नरक की ओर ले चले l संन्यासी धैर्य न रख सका , बोला ---- " यह क्या अंधेरगर्दी है , तुम नर्तकी को स्वर्ग की ओर और मुझे नरक की ओर ले जा रहे हो l " संन्यासी ने उन्हें नीचे धरती की ओर देखने को कहा , जहाँ उसके मृत शरीर को फूलों से सजाया गया था और बैंड की धुन पर राम - नाम गाते हुए उसे शमशान की ओर ले जा रहे थे l संन्यासी बोला -- " देखो , तुमसे समझदार धरती के लोग हैं जो मुझ पर न्याय कर रहे हैं l "
दूत हंसने लगे और बोले ---- " वे बेचारे तो केवल वही जानते हैं , जो बाहर था l ये व्यवहार तो देख पाते हैं लेकिन अंत:करण को नहीं जान पाते l जबकि असली सवाल व्यवहार का नहीं , चरित्र और चिंतन का है l शरीर का नहीं मन का है l इन लोगों ने वाही जाना , जो तुम दिखाते रहे , जो तुमने लोगों के सामने किया , परन्तु जो तुम सोचते रहे , मन की दीवारों के भीतर करते रहे , उसे ये सब जान नहीं पाए l -- सच तो यही है कि शरीर से तुम संन्यासी थे पर तुम्हारा मन सदा नर्तकी में अनुरक्त रहा l तुम्हारे मन में वासना थी , तुम सोचते रहते थे कि नर्तकी के घर में कितना सुन्दर संगीत और नृत्य चल रहा है और मेरा जीवन कितना नीरस है l
जबकि नर्तकी निरंतर यही सोचती रही कि संन्यासी का जीवन कितना पवित्र और आनंदपूर्ण है l जब तुम भजन गाते थे तो वह बेचारी अपने पापों की पीड़ा से विगलित होती , रोती थी l पतित जीवन जीते हुए भी उसके मन में ईश्वर का चिंतन और भक्ति गीत , भजन गूंजते थे l अपने तथाकथित ज्ञान के कारण तुम अहंकारी थे किन्तु नर्तकी के चित में न अहंकार था , न वासना l उसका चित परमात्मा के चिंतन , प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था l
भावनाओं की श्रेष्ठता और पवित्रता के कारण वह स्वर्ग की अधिकारिणी है और भावनाओं की निकृष्टता के कारण तुम नरकगामी हो l
एक पुरानी कथा है ---------- एक शहर में एक ही दिन दो मौतें हो गईं l एक संन्यासी थे और एक नर्तकी l शहर में दोनों का निवास आमने - सामने था l संयोग की बात दोनों एक ही घड़ी में संसार छोड़कर चल दिए l जैसे ही उनकी मृत्यू हुई उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आये l वे दूत नर्तकी को स्वर्ग की ओर और संन्यासी नरक की ओर ले चले l संन्यासी धैर्य न रख सका , बोला ---- " यह क्या अंधेरगर्दी है , तुम नर्तकी को स्वर्ग की ओर और मुझे नरक की ओर ले जा रहे हो l " संन्यासी ने उन्हें नीचे धरती की ओर देखने को कहा , जहाँ उसके मृत शरीर को फूलों से सजाया गया था और बैंड की धुन पर राम - नाम गाते हुए उसे शमशान की ओर ले जा रहे थे l संन्यासी बोला -- " देखो , तुमसे समझदार धरती के लोग हैं जो मुझ पर न्याय कर रहे हैं l "
दूत हंसने लगे और बोले ---- " वे बेचारे तो केवल वही जानते हैं , जो बाहर था l ये व्यवहार तो देख पाते हैं लेकिन अंत:करण को नहीं जान पाते l जबकि असली सवाल व्यवहार का नहीं , चरित्र और चिंतन का है l शरीर का नहीं मन का है l इन लोगों ने वाही जाना , जो तुम दिखाते रहे , जो तुमने लोगों के सामने किया , परन्तु जो तुम सोचते रहे , मन की दीवारों के भीतर करते रहे , उसे ये सब जान नहीं पाए l -- सच तो यही है कि शरीर से तुम संन्यासी थे पर तुम्हारा मन सदा नर्तकी में अनुरक्त रहा l तुम्हारे मन में वासना थी , तुम सोचते रहते थे कि नर्तकी के घर में कितना सुन्दर संगीत और नृत्य चल रहा है और मेरा जीवन कितना नीरस है l
जबकि नर्तकी निरंतर यही सोचती रही कि संन्यासी का जीवन कितना पवित्र और आनंदपूर्ण है l जब तुम भजन गाते थे तो वह बेचारी अपने पापों की पीड़ा से विगलित होती , रोती थी l पतित जीवन जीते हुए भी उसके मन में ईश्वर का चिंतन और भक्ति गीत , भजन गूंजते थे l अपने तथाकथित ज्ञान के कारण तुम अहंकारी थे किन्तु नर्तकी के चित में न अहंकार था , न वासना l उसका चित परमात्मा के चिंतन , प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था l
भावनाओं की श्रेष्ठता और पवित्रता के कारण वह स्वर्ग की अधिकारिणी है और भावनाओं की निकृष्टता के कारण तुम नरकगामी हो l
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