महर्षि अरविन्द न कहा था --- ' कर्मयोग ही जीवन का सार है | ' वे धर्म और अध्यात्म से शून्य राजनीति को मानवता के लिए अकल्याणकारी मानते थे , क्योंकि उसका अंतिम परिणाम कलह , संघर्ष और शत्रुता में ही निकलता है । '
21 वर्ष की आयु तक वे इंग्लैंड में पढ़ते रहे लेकिन भारत में आकर यहाँ की पराधीनता और अंग्रेजों के अहंकारपूर्ण व्यवहार को देखकर वे उग्र शब्दों में विदेशी शासन की आलोचना करने लगे । लेकिन उनके लेख ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उन्हें घ्रणा फैलाने वाला या हिंसा को बढ़ावा देने वाला सिद्ध नहीं किया जा सकता था ।
उनके लेखों का वातावरण आध्यात्मिक रहता था , वे कर्तव्य पालन के रूप में भारतमाता की वेदी पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने का उपदेश देते थे ।
उनका कहना था किहम अपने ह्रदय को महान और स्वतंत्र बनाकर ही सामाजिक और राजनीतिक द्रष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते हैं ।
शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे । उन्होंने यूरोप की ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी है , इसलिए सांसारिक द्रष्टि से वैभव और चमक - दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमे शाश्वत कल्याण और शान्ति प्रदान करने की शक्ति नहीं है । उसके कारण संसार में स्वार्थ युक्त संघर्ष की स्रष्टि होती है और मनुष्य चेतना के उच्च शिखर पर पहुँचने के बजाय साधारण श्रेणी की सफलताओं में ही लिप्त रहता है ।
इसके विपरीत भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य ब्रह्मचर्य और योग द्वारा आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करना बताया गया था l
इसलिए महर्षि अरविन्द ने प्राचीन भावनाओं को आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल रूप में परिवर्तित करके कार्यान्वित करने पर जोर दिया । संसार का वास्तविक कल्याण अध्यात्म का अवलम्बन लेकर ही हो सकता है ।
21 वर्ष की आयु तक वे इंग्लैंड में पढ़ते रहे लेकिन भारत में आकर यहाँ की पराधीनता और अंग्रेजों के अहंकारपूर्ण व्यवहार को देखकर वे उग्र शब्दों में विदेशी शासन की आलोचना करने लगे । लेकिन उनके लेख ऐसे उच्च भावों से युक्त होते थे कि उन्हें घ्रणा फैलाने वाला या हिंसा को बढ़ावा देने वाला सिद्ध नहीं किया जा सकता था ।
उनके लेखों का वातावरण आध्यात्मिक रहता था , वे कर्तव्य पालन के रूप में भारतमाता की वेदी पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने का उपदेश देते थे ।
उनका कहना था किहम अपने ह्रदय को महान और स्वतंत्र बनाकर ही सामाजिक और राजनीतिक द्रष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते हैं ।
शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे । उन्होंने यूरोप की ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी है , इसलिए सांसारिक द्रष्टि से वैभव और चमक - दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमे शाश्वत कल्याण और शान्ति प्रदान करने की शक्ति नहीं है । उसके कारण संसार में स्वार्थ युक्त संघर्ष की स्रष्टि होती है और मनुष्य चेतना के उच्च शिखर पर पहुँचने के बजाय साधारण श्रेणी की सफलताओं में ही लिप्त रहता है ।
इसके विपरीत भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य ब्रह्मचर्य और योग द्वारा आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करना बताया गया था l
इसलिए महर्षि अरविन्द ने प्राचीन भावनाओं को आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल रूप में परिवर्तित करके कार्यान्वित करने पर जोर दिया । संसार का वास्तविक कल्याण अध्यात्म का अवलम्बन लेकर ही हो सकता है ।
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