' जितना प्रभाव उनके उपदेशों का नहीं होता था उतना उनके व्यवहार एवं चरित्र का होता था | अफ्रीकावासियों के लिए य ह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि कोई व्यक्ति इतना उदार और
पर-दुःख कातर हो सकता है । यदि है तो यह व्यक्ति कोई न कोई देवता है और उसकी बातों मे सच्चाई है ।
डॉक्टर बन जाने के बाद 1940 में एक ईसाई मिशनरी बनकर डेविड लिविंगस्टन अफ्रीका पहुँचे । अफ्रीका उस समय अन्ध-महाद्वीप कहलाता था । इस क्षेत्र को प्रकाश में लाने का बहुत कुछ श्रेय इन्ही को जाता है । यहां के लोगों को गुलामी, अन्धविश्वास और अशिक्षा के पंजे से छुड़ाने के लिए उन्होने अपना सारा जीवन बलिदान कर दिया ।
अपने शिक्षा काल में उन्होंने देखा था कि जहाजों पर पशुओं की तरह काले दास लादकर लाये जाते थे जिनके साथ गोरे मालिक पशुओं से भी गया-गुजरा व्यवहार करते थे । उन्हें यह सब देख बड़ा दुःख होता था, उनकी यह संवेदना ही उन्हें अफ्रीका खींच लाई ।
रविवार के दिन वे धर्म-उपदेश देते थे, उन्हें समझाने के लिए उन्होंने उनकी कठिन भाषा सीख ली । उनकी चिकित्सक के रूप में की गई सेवाएं एक धर्मोपदेशक से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थीं । मलेरिया जो यहाँ की सामान्य बीमारी थी उसे दूर करने में उन्हें पर्याप्त सफ़लता मिली ।
केपटाउन से लगाकर विषुवत रेखा तक और अटलान्टिक सागर के अफ्रीकी तट से हिन्द महासागर के अफ्रीकी तट तक यायावर कि तरह घूमने और प्रकाश फैलाने का कार्य उन्होंने अकेले संपन्न किया । मध्य अफ्रीका की बहुत सी जानकारियाँ दुनिया को इन्ही की देन हैं ।
वे प्रथम यूरोपवासी थे जिन्होंने नियाग्रा से दुगुनी ऊंचाई से गिरने वाले जल-प्रपात नगामी को पहली बार देखा था, उन्ही ने उसका नामकरण विक्टोरिया प्रपात किया था ।
जेम्बेजी नदी तथा न्यासा झील को उन्होंने ही खोजा था ।
अपने इन कार्य-कलापों की वजह से वे अफ्रीका में लोकप्रिय हुए और विश्व भर मे उनकी ख्याति
फैली । एक मनुष्य किस प्रकार एक सभ्य जगत को छोड़कर महान उद्देश्य की खातिर अपनी जान हथेली पर लेकर अफ्रीका के घने जंगलों में भटक रहा था और इन दो मानव समाजों के बीच जो चौड़ी नदी बह रही थी उस पर वे पुल बना रहे थे ।
उन्होंने स्थान-स्थान पर स्कूल खोले, चर्च स्थापित किये, लोगों को खेती करने के सही तरीके बताये,
उनकी रोगों से रक्षा की । इतने बड़े महादवीप में अकेले ही सब कुछ कर रहे थे । जब उनकी मृत्यु हुई तो लोगों ने कहा ----- ' देवता चला गया । ' अपने जीवन के 33 बहुमूल्य वर्ष उन्होंने इन्ही लोगों
की सेवा में गुजारे |
पर-दुःख कातर हो सकता है । यदि है तो यह व्यक्ति कोई न कोई देवता है और उसकी बातों मे सच्चाई है ।
डॉक्टर बन जाने के बाद 1940 में एक ईसाई मिशनरी बनकर डेविड लिविंगस्टन अफ्रीका पहुँचे । अफ्रीका उस समय अन्ध-महाद्वीप कहलाता था । इस क्षेत्र को प्रकाश में लाने का बहुत कुछ श्रेय इन्ही को जाता है । यहां के लोगों को गुलामी, अन्धविश्वास और अशिक्षा के पंजे से छुड़ाने के लिए उन्होने अपना सारा जीवन बलिदान कर दिया ।
अपने शिक्षा काल में उन्होंने देखा था कि जहाजों पर पशुओं की तरह काले दास लादकर लाये जाते थे जिनके साथ गोरे मालिक पशुओं से भी गया-गुजरा व्यवहार करते थे । उन्हें यह सब देख बड़ा दुःख होता था, उनकी यह संवेदना ही उन्हें अफ्रीका खींच लाई ।
रविवार के दिन वे धर्म-उपदेश देते थे, उन्हें समझाने के लिए उन्होंने उनकी कठिन भाषा सीख ली । उनकी चिकित्सक के रूप में की गई सेवाएं एक धर्मोपदेशक से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थीं । मलेरिया जो यहाँ की सामान्य बीमारी थी उसे दूर करने में उन्हें पर्याप्त सफ़लता मिली ।
केपटाउन से लगाकर विषुवत रेखा तक और अटलान्टिक सागर के अफ्रीकी तट से हिन्द महासागर के अफ्रीकी तट तक यायावर कि तरह घूमने और प्रकाश फैलाने का कार्य उन्होंने अकेले संपन्न किया । मध्य अफ्रीका की बहुत सी जानकारियाँ दुनिया को इन्ही की देन हैं ।
वे प्रथम यूरोपवासी थे जिन्होंने नियाग्रा से दुगुनी ऊंचाई से गिरने वाले जल-प्रपात नगामी को पहली बार देखा था, उन्ही ने उसका नामकरण विक्टोरिया प्रपात किया था ।
जेम्बेजी नदी तथा न्यासा झील को उन्होंने ही खोजा था ।
अपने इन कार्य-कलापों की वजह से वे अफ्रीका में लोकप्रिय हुए और विश्व भर मे उनकी ख्याति
फैली । एक मनुष्य किस प्रकार एक सभ्य जगत को छोड़कर महान उद्देश्य की खातिर अपनी जान हथेली पर लेकर अफ्रीका के घने जंगलों में भटक रहा था और इन दो मानव समाजों के बीच जो चौड़ी नदी बह रही थी उस पर वे पुल बना रहे थे ।
उन्होंने स्थान-स्थान पर स्कूल खोले, चर्च स्थापित किये, लोगों को खेती करने के सही तरीके बताये,
उनकी रोगों से रक्षा की । इतने बड़े महादवीप में अकेले ही सब कुछ कर रहे थे । जब उनकी मृत्यु हुई तो लोगों ने कहा ----- ' देवता चला गया । ' अपने जीवन के 33 बहुमूल्य वर्ष उन्होंने इन्ही लोगों
की सेवा में गुजारे |
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