मनुष्य कितने बड़े संकल्प कर सकता है । उन संकल्पों को साकार भी कर सकता है , सिकन्दर उसका अनुपम उदाहरण है । ' भूल उसकी यही थी कि उसने केवल अपने अहम् की तृप्ति के लिए यह सब किया ।
सिकन्दर शक्तिमंत था । उसका अपना देश , अपना पद , अपना सिंहासन था किन्तु वह अपनी उस सीमा में संतुष्ट न रह सका । सारे विश्व को अपने पैरों तले लाने की महत्वाकांक्षा उस पर प्रेत की तरह सवार हो गई , जिसने उसे आततायी बना दिया । अनावश्यक रूप से उसने सारे संसार की शांति भंग कर दी । सुख और चैन से रहती जनता में भय , रोष और शंका की वृतियां जगा दीं ।
घर - घर के नवयुवक सेना में भर्ती होने लगे । सेना बनाम देश के नागरिकों को उनके घर - बार से दूर विदेशी सीमाओं में डाल दिया गया । दिन - रात लड़ाई , रक्तपात , छल - कपट । कोई शांति - सुकून नहीं । लाखों कटते , हजारों भूखे मरते न जाने कितने रोगी हो जाते किन्तु कोई सुनने वाला नहीं ।
विश्व विजय का स्वप्न देखने वाला सिकन्दर एक मच्छर का सामना नहीं कर सका । बेबीलोन में जाकर उसकी मृत्यु मलेरिया से हुई । मृत्यु के समय जीवन की एक - एक स्मृतियाँ उभरकर आने लगीं । भारत में मिली नैतिक पराजय को वह भूला नहीं । जब सीमा प्रान्त के एक गाँव में वह थकान मिटाने के लिए रुका । वहां एक जलसा हो रहा था , ढोल - नगाड़ों का शोर था । भोजन का समय हो गया , सिकन्दर के लिए भोजन की मांग की गई ।
दो युवतियां कीमती चादर से ढकी थाली लाई । चादर हटाकर देखा तो सिकन्दर के क्रोध का पारावार न रहा । उसमे सोने चांदी के आभूषण थे । पूछने पर एक युवती ने निर्भीकता से कहा ----- " हमने सुना है मकदूनिया का सम्राट सिकन्दर महान सोने और चांदी का भूखा है और इसी भूख को मिटाने के लिए भारत आया है । सो आपकी सेवा में आपका भोजन । "
इस कटाक्ष से सिकन्दर विक्षिप्त हो उठा ।
सिकन्दर ने आखिरी सांस जानकर एक सेनापति को बुलाया और कहा --- " देखो मित्र ! जब मेरी अर्थी बनाई जाये तो मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकाल देना ताकि दुनिया वाले यह जान सकें कि मेरे दोनों हाथ खाली हैं , मैं कुछ नहीं ले जा रहा हूँ । "
सिकन्दर शक्तिमंत था । उसका अपना देश , अपना पद , अपना सिंहासन था किन्तु वह अपनी उस सीमा में संतुष्ट न रह सका । सारे विश्व को अपने पैरों तले लाने की महत्वाकांक्षा उस पर प्रेत की तरह सवार हो गई , जिसने उसे आततायी बना दिया । अनावश्यक रूप से उसने सारे संसार की शांति भंग कर दी । सुख और चैन से रहती जनता में भय , रोष और शंका की वृतियां जगा दीं ।
घर - घर के नवयुवक सेना में भर्ती होने लगे । सेना बनाम देश के नागरिकों को उनके घर - बार से दूर विदेशी सीमाओं में डाल दिया गया । दिन - रात लड़ाई , रक्तपात , छल - कपट । कोई शांति - सुकून नहीं । लाखों कटते , हजारों भूखे मरते न जाने कितने रोगी हो जाते किन्तु कोई सुनने वाला नहीं ।
विश्व विजय का स्वप्न देखने वाला सिकन्दर एक मच्छर का सामना नहीं कर सका । बेबीलोन में जाकर उसकी मृत्यु मलेरिया से हुई । मृत्यु के समय जीवन की एक - एक स्मृतियाँ उभरकर आने लगीं । भारत में मिली नैतिक पराजय को वह भूला नहीं । जब सीमा प्रान्त के एक गाँव में वह थकान मिटाने के लिए रुका । वहां एक जलसा हो रहा था , ढोल - नगाड़ों का शोर था । भोजन का समय हो गया , सिकन्दर के लिए भोजन की मांग की गई ।
दो युवतियां कीमती चादर से ढकी थाली लाई । चादर हटाकर देखा तो सिकन्दर के क्रोध का पारावार न रहा । उसमे सोने चांदी के आभूषण थे । पूछने पर एक युवती ने निर्भीकता से कहा ----- " हमने सुना है मकदूनिया का सम्राट सिकन्दर महान सोने और चांदी का भूखा है और इसी भूख को मिटाने के लिए भारत आया है । सो आपकी सेवा में आपका भोजन । "
इस कटाक्ष से सिकन्दर विक्षिप्त हो उठा ।
सिकन्दर ने आखिरी सांस जानकर एक सेनापति को बुलाया और कहा --- " देखो मित्र ! जब मेरी अर्थी बनाई जाये तो मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकाल देना ताकि दुनिया वाले यह जान सकें कि मेरे दोनों हाथ खाली हैं , मैं कुछ नहीं ले जा रहा हूँ । "
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